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उपेक्षा का दंश झेलते बौधिवृक्ष

एक कहानी कहते कहते
एक कहानी कहते कहते
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हमारा देश और हमारा समाज बहुत तेज़ी से प्रगति के पथ पर है! मुझे ख़ुशी होती है देखकर के सत्य है हम सफल हो रहे हैं शिक्षा की द्रष्टि से भी और सोच की भी, लेकिन इस सफलता के पीछे मुझे एक अलग तस्वीर दिखाई देती है! कल तक हम सभी की सोच थी के परिवार में हम सब एक हैं कोई अलग नहीं, पिता या दादा दादी घर का कोई भी बड़ा सदस्य परिवार का मुखिया होता था जिसका दायित्व था परिवार की खुशियों का , सामाजिक दायित्वों परम्पराओं का नैतिक निर्वाह करना, वो एक जहाज के कप्तान के सामान भूमिका रखता था! परिवार में वे एक निर्देशक के सामान अपने कार्य को पूरी लगन से करते थे और सम्मान पूर्वक रहते थे!
लेकिन आज के बदलते परिद्रश्य ने हमारे से परिवार का मुखिया छीन लिया…… जो परिवार का बड़ा सदस्य अपने अनुभव और ज्ञान के प्रकाश में हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देता था वह मुखिया हम खो चुके हैं रह गया है तोह परिवार का सेवा निवृत डरा हुआ बुज़ुर्ग जिसे हर पल भय है के कब उसकी आर्थिक स्तिथि पर प्रहार कर दिया जाएगा, वह परिवार में रहता है किन्तु परिवार के दोयम दर्जे के कार्यो के लिए, जिनके लिए कथित प्रगतिशील परिवार के सदस्य अपने आफिस के कामो के कारण समय नहीं निकाल पाते हैं! आखिर यह समस्या कहाँ से आरम्भ हुई? कोण है इस सोच का संवाहक ? इस प्रश्न का उत्तर हमारे मध्य मौजूद है , आज के युग की धन की दासता प्रधान सोच, अर्थात आज समाज में ही नहीं परिवार में भी वही सम्माननीय हैं जिनकी आर्थिक स्तिथि सुद्रढ़ है नहीं तोह वह प्राणी परिवार के लिए बोझ सामान है, यह घिनौनी सोच पहले समाज में आई जब हम दो लोगो में धन के आधार पर विभेद सीखे थे! और अब उसी सोच का विस्तार हमें ज्यादा दूर नहीं अपनी ही छत के नीचे देखने को मिल जायेगा! एक ही परिवार में एक बेटे को अधिक मान इसी आधार पर है क्युकी की आर्थिक रूप से वह सबल है और दूसरा इसी लिए उपेक्षित है क्युकी वह धनवान नहीं है! बेटी की पीड़ा में हूक भरने वाली माता का मन भी अब निर्धन सुपुत्री के दर्द को न देख कर धनवान बेटी के सुन्दर भवन पर हुंकार भरने लगा है! यह इसी कलुषित सोच का ही तोह परिणाम है! और इसी का नतीजा है के नौकरी से निवृत वयोवृद्ध पिता आज विद्यालय से अपने वंशजो को लाने के लिए भरी दोपहर में धक्के खता फिर रहा है और बहु बेटे अपनी उन्नति के लिए आगे आगे और बढ़ते जा रहे हैं! कुल मिलकर एक ऐसा वातावरण बन गया है आज जो मनुष्य अर्थहीन है वो समाज में तोह क्या घर में भी अर्थहीन ही है! उसके गुण एक तरफ रह जाते हैं लेकिन इस पूंजीवादी सोच में बंधकर हम बहुत कुछ खो रहे हैं
पहले हमने अपने बड़े शानदार घर के लिए आँगन का वृक्ष खोया अब अपनी आर्थिक सोच के चलते बौधि वृक्ष भी खो रहे हैं

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