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जीवन का जब आरम्भ हुआ तभी से इसको जीने के लिए आवश्यक जीवन शैली की आवश्यकता महसूस की गयी और उस समय हमने पाया धर्म को, धर्म जो हमें मनुष्यता की और लेकर जाता है सिखाता है और जीवन को जीने का एक सुन्दर मार्ग देता है! चाणक्य ने कहा है कि ” धर्म विहीन व्यक्ति कि न तोह कोई सम्मान होती है न महत्व, वह मात्र एक पशु बनकर रह जाता है” सत्य भी है धर्म के अभाव में हम दिशा हीन हैं क्युकी धर्म मात्र ईश पूजा का नहीं बल्कि हमें अनेको नेक शिक्षाओं से भी आभूषित करता है! जैसे सोने जागने सम्बन्धी नियम, भोजन सम्बन्धी नियम जो वस्तुतः वैज्ञानिक रूप से प्रभावी हैं! और उनका पालन अत्यंत सुखकारी भी है, किन्तु धर्म को वस्तुतः हम क्या रूप दे रहे हैं!
कल कि पूरी रात मैंने हरे कृष्ण मंत्र कका जाप सुना अच्छा लगा, किन्तु कुछ समय बाद यह असुविधा जनक हो गया, कारण भी है सोने के समय यह लाउड स्पीकर के स्वर ऊपर से मेरा गिरा हुआ स्वास्थ्य मैं सोना चाहती थी! श्री कृष्ण के लिए मेरे मन में जो अगाध श्रद्धा है वह मैं शब्दों के माध्यम में नहीं कह सकती किन्तु पूरी रात वो तीखे स्वर सुनना खासकर तब जब स्वास्थ्य सही नहीं हो तोह दुष्कर है! ऐसा पहली बार नहीं कई बार हुआ है जान्ने कि इच्छा हुयी क्या कि विधि इसके लिए क्या कहती है, तोह उत्तर मिला कि सिप्रकर कि १० बजे के बाद यह सब विधि विरुद्ध है लेकिन फिर भी लोग नहीं मानते और कानून के अनुपालन से सम्बद्ध इसको भगवान् का मामला समझ कर हस्तक्क्षेप नहीं करते हैं! परिणामतः मेरे जैसे लोगो को भुगतना ही होगा! क्योंकि यदि इन भक्तो जानो से प्रार्थना कि जाये तोह इनका कहना होता है , ” अजी साहब भगवान् के नाम से तोह रोग दूर हो जाते हैं आप भी क्या बात करते हैं बजने दीजिये”
लेकिन मेरा मन्ना है कि भगवान् का नाम शोर शराबा करने से नहीं शांति में करना ज्यादा सुन्दर है! आजकल हर कोई अपने जीवन कि उहापोह में उलझा है, अधिक धनार्जन और सम्मान अर्जन के लिए तत्पर है जिसके कारण वह कई बार सही और गलत के भेद को मिटाकर काम करता है, कई बार किसी कर्यविशेष के संपादन हेतु ईश्वर शरण होता है लेकिन अपनी साधना और पूजा से किसी को असुविधा भी हो सकती है इस तथ्य को नितांत भुला देना कही भी यथोचित नहीं है! प्राचीन काल में ऋषि मुनि ताप किया करते थे किन्तु वे इसके लिए शांत स्थान में जाकर साधना करते थे! और कथा भगवत प्राचीन कालीन हैं किन्तु उसके लिए स्पीकर जैसे ध्वनि वर्धक उपायों का प्रयोग नहीं था, उस काल में इनका अविष्कार ही नहीं था सब कार्य शांति और श्रद्धा के अभिभूत था अतः जो भी करा जाता था उसमे दिखावा कम और लगन अधिक थी! लेकिन आजकल श्रद्धा कही कही उपताप के रूप में भी सामने देखने को मिल जाती है! कितना सुखद लगे के शांति से अगर जागरण हो जिस परिवार में यह कार्यक्रम है वहीँ इसकी झंकार हो और जो सुनने के इच्छुक भात हैं वे गंतव्य पर आकर भाग ले! जाप में हवं स्थली में शामिल होने का आनंद इच्छुक और सशक्त भक्त उठाये! शास्त्र भी रोगी और गर्भिणी को पूजा जप ताप से उन्मुक्ति कि व्यवस्था पर प्रकाश डालते हैं फिर हम क्यों नहीं?
अगर श्रद्धा का दीप मन में जलाया जाए जीवन को एक यज्ञ बनाया जाए तोह यह समाज और धर्म दोनों के लिए ही युक्तियुक्त होगा ऐसा भी क्या धर्म के बस फर्क इतना बचे के जब हम डिस्को में जाते हैं वहां संगीत के बोल अलग हैं अन्यथा वाही शोर धार्मिक उत्सवो में मिले! अभी कुछ समय पहले कि ही घटना है जिसमे एक वार्षिक यज्ञ में गए लोगो, दम घुटने और झलस से मरे और बीमार भी पड़े, काश हम धर्म को बस धर्म ही रहने दे, अपने पाप धोने का साबुन न बनाये!
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