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वहमात्र दु धारू पशुही हैं,

एक कहानी कहते कहते
एक कहानी कहते कहते
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आजकल शिक्षा का प्रचार और प्रसार दिन दिन बढ़ रहा है और मुझे हार्दिक ख़ुशी होती है यह देखकर कि पिछड़े से पिछड़े समाज में अब शिक्षित युवा नज़र आते हैं लेकिन हर अछे के साथ बुराई भी जुड़कर अवश्य आती है ऐसा ही कुछ मुझे तब लगा जब मैं अपनी प्रिय सखी मेघा से मिलने गयी, मेघा विवाह योग्य है उसके लिए उपयुक्त वर की तलाश जारी है जिसमे बहुत बड़ा अवरोध मेघा की शिक्षा साबित होती है! वह अशिक्षित नहीं है वरन स्नातकोत्तर है और फिर उसने विधि में स्नातक भी किया है! लेकिन पिता की ख़ुशी के लिए उसने नौकरी का प्रयास नहीं किया, वह मेधावी है अतः उसने लोक सेवा चयन आयोग की परीक्षा में प्रयास किया है और कर भी रही है! किन्तु वह बीमार है बहुत जल्दी हो जाती है इस कारण थोड़ी सी नाज़ुक है! किन्तु एक मनुष्य के रूप में मैंने हर दम बहुत अच्छा पाया है, शिक्षक के रूप में भी वह घर में बच्चो को पढ़ाती है, सुन्दर है और मेरे अक्सर लेखो की प्रेरणा भी है!
लेकिन अफ़सोस अब जब कहीं भी उसके लिए अछे लड़के देखे जाते हैं तोह परिणाम प्रतिकूल निकलता है, समस्या………..वर पक्ष को उसकी शिक्षा पसंद नहीं! उनको विज्ञानं वर्ग से शिक्षित और मूलत तकनिकी क्षेत्र में कोई कार्यरत लड़की वधु के रूप में चाहिए! वर पक्ष की यह मानसिकता उसके लिए बड़ी समस्या बनी हुई है और मेरे लिए चिंतन का विषय, आजकल हम क्या तलाश रहे हैं परिवार का सदस्य या फिर एक पद, आय का साधन! स्त्री का घर से बहार निकलकर काम करना अच्छा है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं जो ऐसा नहीं कर रही वो निगुरी हैं, और ऐसा भी अक्सर देखा जाता है प्रसव के बाद ही कर्मशील या उच्च पदस्थ महिलाये घर परिवार का चयन करती है और नौकरी से विश्राम ले लेती हैं! तब उनके पति उन्ही पत्नियों को सम्मान देते हैं किन्तु यही परित्याग जब कोई बेटी कर रही हो तोह वह गलत है!
दूसरा प्रश्न मेरा यह है के ,, क्यों शिक्षित और सामाजिक बस विज्ञानं वर्ग के लिए आरक्षित है, क्या कला संकाय में पढने वाली छात्राए मूढ़ हैं! उनको समाज में उठने बैठने का अधिकार नहीं है! या कला संकाय से आने वाली लड़कियों में यह समझ नहीं होती के वे अपने पति के साथ सामंजस्य बिठा सके! विवाह में आजतक मैं सुनती आई थी कि ” लड़का काम नहीं करता अतः विवाह व्यर्थ है”, आज नयी रीति जानी के लड़की भी कमाते हुए है तोह विवाह होगा अन्यथा कमोबश उसको योग्य वर स्वीकारना होगा.
किन्तु क्या यह सामाजिक संकीर्णता नहीं है, पहले समाज में यह समस्या थी के हम बहु से नौकरी नहीं कराएँगे, उसमे सुधार आया लोग बहु बेटियों के काम करने को स्वीकारने लगे! लेकिन फिर से हम संकीर्णता कि और बढ़ने लगे, अब जो काम करती है कमाती हैं वो ही योग्य शेष व्यर्थ! इसके साथ एक पंक्ति और कहूंगी के इस सब में दहेज़ कि मांग में कहीं कमी नहीं आती है, वो लड़की चाहे समान कमाती हूँ फिर भी उतना ही देना पड़ेगा! लगता है हमारे समाज में युवाओं ने बस कूप बदल दिया है सोच आज भी वहीँ के वहीँ है! और दुखद माता पिता भी सुपुत्र के स्वर में स्वर मिला रहे हैं!
किन्तु मैं सोचती हूँ के स्त्री का सम्मान आज भी कहाँ हैं, अब भी तोह वह मात्र दुधारू पशु ही हैं, यदि वह धनार्जन कर स्वयं का भरण पोषण करती दिखे तोह विवाह नहीं तोह नहीं! हमारे भावी युवा अपनी पत्नी का दायित्व उठाने में इतने असमर्थ हो गए…………दुखद..है यह तोह!
आज भी स्त्री अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही है, मैं सोचती हूँ जब हम लडको के सामान कमा लेंगे तोह फिर क्यों इन सब पारिवारिक झंझटो में आना, वर्ष भर काम किया और एक माह का अवकाश लेकर घूमते हैं आनद करते हैं, संतान सुख के लिए क्यों में किसी अनाथ को अपना लिया जाए उसका भी जीवन संवर जाए, क्यों करे शादी जब परिवार और पति तोह धन के साथी हैं क्यों न इसी धन को जीवन साथी मानकर आनंद मनाएं. और वृधावस्था में अवकाश के बाद समाज कि सेवा करें वृन्दावन में कृष्ण राधे के प्रेम का आनंद ले! सेवा सुख होगा तोह मदर टेरेसा को कभी संतान कि आवश्यकता अनुभव नहीं हुई!

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